केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने वह ऐतिहासिक फैसला ले लिया है जिसकी मांग कई दशकों से की जा रही थी—जातीय जनगणना को औपचारिक मंजूरी मिल गई है। इस फैसले के दूरगामी प्रभाव होंगे, जो न केवल देश के आरक्षण ढांचे को झकझोर सकते हैं, बल्कि भारत की राजनीति, समाज और शासकीय संरचना में व्यापक बदलाव ला सकते हैं। जातिगत आंकड़ों के सार्वजनिक होने के बाद एक नई सामाजिक और राजनीतिक धारा का उदय लगभग तय माना जा रहा है।
आरक्षण की सीमा हटने की संभावना
1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय कर दी थी। यह निर्णय उस समय एक मील का पत्थर माना गया था। लेकिन अब जातीय जनगणना के जरिए अगर यह सामने आता है कि ओबीसी वर्ग की संख्या आधे से ज्यादा है, तो वे अपनी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की मांग करेंगे। इससे सरकार पर यह दबाव बनेगा कि वह सुप्रीम कोर्ट की आरक्षण सीमा को चुनौती दे या उसे खत्म करने के लिए नया संवैधानिक रास्ता तलाशे। यह फैसला सामाजिक न्याय के इतिहास में एक नया अध्याय खोल सकता है।
बदल जाएगी संसद और विधानसभाओं की तस्वीर
जातीय आंकड़ों के सामने आने के बाद जिन जातियों की जनसंख्या अधिक पाई जाएगी, उनकी राजनीतिक गोलबंदी और सक्रियता तेज हो जाएगी। यह स्थिति वैसी ही हो सकती है जैसी 1990 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद देखने को मिली थी। उस दौर में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, अपना दल जैसी पार्टियों का उदय हुआ था और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों का जनाधार उत्तर भारत में खिसक गया था। अब एक बार फिर जातिगत आकड़ों के आधार पर राजनीतिक समीकरणों में बड़ा बदलाव संभव है।
जानिए किस जाति की कितनी जनसंख्या
देश में पिछड़े वर्गों की वास्तविक जनसंख्या पर लंबे समय से बहस होती रही है। आखिरी बार 1931 की जनगणना में ही जातिगत आंकड़े एकत्र किए गए थे, जिसमें ओबीसी वर्ग की आबादी 52 प्रतिशत से अधिक बताई गई थी। इसके बाद मंडल आयोग ने भी इसी आंकड़े को आधार मानते हुए ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी। बिहार और कर्नाटक जैसे राज्यों ने हाल ही में अपने स्तर पर जातीय सर्वेक्षण कर इस मुद्दे को नई गति दी है। अब केंद्र की जातीय गणना से पूरे देश को यह पता चल सकेगा कि किस जाति की कितनी जनसंख्या है, और यह जानकारी भविष्य की सामाजिक नीतियों की दिशा तय करेगी।
स्कूल-कॉलेज और सरकारी नौकरियों में बदलाव
अगर जातीय गणना के आधार पर आरक्षण की सीमा बढ़ाई जाती है तो इसका सीधा असर शिक्षा और रोजगार पर दिखाई देगा। स्कूल-कॉलेजों में पिछड़े वर्ग के छात्रों की भागीदारी बढ़ेगी। वहीं सरकारी नौकरियों में भी वे जातियां जो अब तक कम प्रतिनिधित्व में रही हैं, उनकी संख्या बढ़ेगी। यह बदलाव प्रशासनिक ढांचे के सामाजिक संतुलन को और मजबूती दे सकता है।
सामाजिक विभाजन की आशंका भी बनी रहेगी
हालांकि यह फैसला सामाजिक न्याय की दिशा में ऐतिहासिक माना जा सकता है, लेकिन इसके साथ कई जोखिम भी जुड़े हुए हैं। जातीय आंकड़े सार्वजनिक होने से समाज में एक नया विभाजन भी पैदा हो सकता है। 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होते समय देश भर में आंदोलन, हिंसा और आत्मदाह जैसे घटनाएं हुई थीं। इस बार भी राजनीतिक दल इन आंकड़ों का उपयोग वोट बैंक मजबूत करने के लिए कर सकते हैं, जिससे जातिगत तनाव और टकराव की आशंका बनी रहेगी।
जातीय जनगणना की मंजूरी के साथ भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां सामाजिक न्याय, राजनीतिक समीकरण और संवैधानिक संतुलन—तीनों नए स्वरूप में दिखाई दे सकते हैं। यह कदम जितना बड़ा सामाजिक समावेशन की ओर बढ़ाया गया कदम है, उतना ही यह एक संवेदनशील और चुनौतीपूर्ण बदलाव भी है।
