Explore

Search

December 7, 2025 6:14 am

LATEST NEWS
Lifestyle

Hindi Poetry : लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें, रहें मुबारक पीनेवाले खुली रहे यह मधुशाला- हरिवंश राय बच्चन

Facebook
Twitter
WhatsApp
Email

27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद (प्रयागराज) में जन्मे हरिवंश राय बच्चन वो नाम हैं जिन्हें किसी पहचान की ज़रूरत नहीं. बच्चन साहब का नाम आते ही सबसे पहली जो कविता ज़ेहन में आती है, वो है ‘मधुशाला’. उनके जन्मदिन पर उनकी सबसे लोकप्रिय रचना की बात न हो, ऐसा होना तो नामुमकिन है. हालांकि मधुशाला की तरह ही उनकी ऐसी कई रचनाएं हैं, जो एक बार पढ़ने के बाद हमेशा-हमेशा के लिए पास ठहर कर रह गईं.

बच्चन साहब सिर्फ कविताएं लिखते नहीं थे, बल्कि उन्हें जीते भी थे. वास्तव में वह जन-मन को सुरभित करने वाले जीवन संघर्ष के आत्मनिष्ठ कवि हैं. कितना खूबसूरत है, ऐसा सोच पाना भी कि कवि अपनी रचनाओं के माध्यम से सदियों-सदियों तक जीवित रहता है और अपने पाठकों के मन में अनंत-जीवी हो उठता है. साहित्य प्रेमियों के दिलों में बच्चन साहब उस शीतल चंद्रमा की भांति चमकते हैं जिसकी चमक स्थायी न रहकर उत्तरोत्तर बढ़ती गई है.

बच्चन साहब की कविताओं का जादू सिर्फ साहित्य प्रेमियों तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि पाठ्यक्रम की किताबों से होते हुए वह हिंदुस्तान के अधिकतर बच्चों के दिलों में भी बसते हैं. उनकी कविताओं को पढ़ना भावनाओं के सहज, मधुर अंतस्पर्शी इंद्रलोक के सूक्ष्म सौंदर्य वैभव में विचरण करने जैसा है.

प्रस्तुत हैं प्रिय कवि हरिवंश राय बच्चन की सबसे लोकप्रिय रचना ‘मधुशाला’-

मधुशाला (भाग- 1) : हरिवंश राय बच्चन
मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊंगा प्याला,
पहले भोग लगा लूं तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला.

प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूंगा हाला,
एक पांव से साकी बनकर नाचूंगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूंगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला.

प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला.

भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएं, दो लाख पिएं!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला.

मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूं हाला,
भरता हूं इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूं,
अपने ही में हूं मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला.

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
‘किस पथ से जाऊं?’ असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूं –
‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला.’

चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
‘दूर अभी है’, पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूं आगे को साहस है न फिरुं पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला.

मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला.

मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,
अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,
बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,
रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला.

सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,
सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,
चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला.

जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,
वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला,
डांट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है,
मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला.

मेहंदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला,
अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला,
पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,
इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला.

हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,
बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले,
पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला.

लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियां साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला.

जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,
जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला.

बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला,
देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला,
‘होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले’
ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला.

धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला.

लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला.

बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला’
‘और लिये जा, और पीये जा’, इसी मंत्र का जाप करे’
मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला.

बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,
बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,
लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,
रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला.

Tags: Book, Harivansh rai bachchan, Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer

Source link

Khabar Gatha
Author: Khabar Gatha

Leave a Comment